रिपोर्ट -- रमाकांत सोनी
योगी आदित्यनाथ की उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में सफलतापूर्वक कार्य करने की राह इतनी आसान नहीं है। उन्होंने अभी कुछ खास नहीं किया लेकिन सादगी और ईमानदारी के उच्चतम प्रतिमानों का निर्वाह करने के कारण उनकी छवि बेहद चमकदार बनकर उभरी है। उनकी छवि की इस चकाचौंध को देखते हुए एक बड़ा वर्ग यह मानने लगा है कि उत्तर प्रदेश के सीएम की कुर्सी उनके करियर का सिर्फ पड़ाव है, वे इससे बहुत आगे तक जाने का मंसूबा मन में साधे हुए हैं। पता नहीं उनके बारे में इस तरह की भविष्यवाणी ने कहीं उनको लेकर भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को चौकन्ना हो जाने की स्थिति में तो खड़ा नहीं कर दिया है। लेकिन केंद्रीय नेतृत्व का संशय योगी के मामले में फिलहाल अभी कहीं झलक नहीं रहा। जो योगी के लिए संतोषप्रद है।
दरअसल योगी के लिए मुश्किलें ऊपर से नहीं अभी उनकी सरकार और यूपी में ही पार्टी के अंदर हैं। पंचम तल पर मुख्यमंत्री के लिए आरक्षित कक्ष में उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या द्वारा कब्जा जमाने का प्रयास करने से यह बात सामने आ चुकी है कि जो नाम मुख्यमंत्री पद के लिए फैसला होने के पूर्व तक खबरों में तैरते रहे थे उन्होंने अपने आपको कहीं न कहीं इस रूप में देखने की मानसिकता बना ली है। पंचम तल के मुख्यमंत्री कक्ष के विवाद को योगी ने तत्काल ही बहुत सूझ-बूझ के साथ सुलझा लिया लेकिन यह एक बानगी है कि पार्टी और सरकार के एक वर्ग की यह मानसिकता सरकार के अऩुशासन में कितनी घातक साबित हो सकती है।
समानांतर सत्ता के रूप में कार्य करने की जुर्रत दिखाने वाले अकेले केशव मौर्या नहीं हैं। कई और भी उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगी एेसी कतार में खड़े हैं। योगी को लेकर कहा जा रहा है कि जबसे उन्होंने मुख्यमंत्री पद संभाला है, टेलीविजन चैनलों के पर्दे पर मोदी गायब हो गए हैं। सिर्फ योगी ही योगी छाए रहते हैं। इससे मोदी को तो कोई समस्या नहीं दिखाई देती लेकिन योगी के महत्वाकांक्षी मंत्री इस मामले में उन्हीं से होड़ कर रहे हैं। जो मीडिया की सुर्खियों में योगी से आगे दिखने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते। कुछ जूनियर मंत्री तक ऐसे अरमान पाले हुए हैं। यह केवल प्रचार लोलुपता का सवाल नहीं है। अपने क्षेत्र में खुद मुख्तार-जागीरदार के रूप में उनकी प्रस्तुति कहीं न कहीं योगी की सर्वोपरिता को चुनौती देने वाली है। जिसमें ढील जारी रही तो आगे चलकर सत्ता के कई केंद्र प्रदेश में स्थापित हो सकते हैं।
एक ओर योगी एक के बाद एक अखिलेश सरकार के फैसले पलटते जा रहे हैं। उन्होंने प्रदेश की सभी सरकारी योजनाओं से समाजवादी शब्द गायब करा दिया है। समाजवादी पेंशन बंद करने का ऐलान तो वे पहले ही कर चुके थे। अब उन्होंने फ्री स्मार्ट कार्ड स्कीम की योजना भी निरस्त कर डाली है। गोमती रिवरफ्रंट सहित अखिलेश सरकार की प्रमुख योजनाओं की जांच भी ताबड़तोड़ कराई जा रही है। जिससे करोड़ों रुपये बढ़ा-चढ़ाकर स्टीमेट बनाने वाले अधिकारी और उनसे जुड़े ठेकेदार परेशान हैं। परेशान तो भाजपा के भी लोग हैं जो कि सपा की सरकार के इस हुनर का इस्तेमाल करके पहली ही साल में कितना कुछ कमा लेने का ख्वाब पाले बैठे थे।
योगी के इस रवैये से एक महीने के कार्यकाल में उनकी सरकार की नकारात्मक सोच हावी होकर सामने आयी है। जिसे सरकार की छवि के लिए ठीक नहीं कहा जा सकता। लेकिन योगी इन फैसलों से यह जाहिर कर रहे हैं कि भाजपा विरोधी दिग्गजों से सखाबुद्धि का खेल उन्हें पसंद नहीं है। पर यह भी खबरें आ रही हैं कि उनके मंत्री दूसरी पार्टियों के नेताओं से मधुर सम्बंधों का निर्वाह करने में चूक नहीं कर रहे। चूंकि जोड़तोड़ के मंत्र में उनका पहले विश्वास है और यह यकीन अब उनकी आदत में तब्दील हो चुका है। ऐसे में अगर बदनाम धुरंधरों को योगी की सरकार का संरक्षण मिलता जनमानस में दिखाई पड़ता है तो यह उनकी साख के लिए जहर बन जाएगा।
मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पहले तक यह मान्यता थी कि भारत में केंद्रीय सत्ता के दरवाजे तक पहुंचने के लिए समाज की बहुलतावादी संरचना के अनुरूप समायोजन और निदा जरूरी है। कट्टर हिंदूवादी रुख का नेता किसी राज्य में तो सफल हो सकता है लेकिन इसके बाद उसके लिए स्वीकार्यता संभव नहीं है। लालकृष्ण आडवाणी ने इसी तरह की स्वीकार्यता के प्रलोभन में पाकिस्तान के जनक जिन्ना के महिमामंडन की ऐसी चूक की कि उनके सारे पुण्य एक ही बार में तिरोहित हो गये और उनका प्रभावशाली राजनैतिक करियर दुखांत पर पहुंच गया।
मोदी युग में भाजपा को अकेले दम पर स्पष्ट बहुमत मिलना मूर्तिभंजन परिघटना के रूप में दर्ज हुआ। एकतरफा कट्टरता की छवि से भी लक्ष्यसिद्धि हो सकती है, इस आत्मविश्वास के बाद तमाम ऊहापोह को तिलांजलि देकर आदित्यनाथ योगी को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला कर दिया गया। यह देश की राजनीति में एक निर्णायक बदलाव है और भाजपा के अनुदार नेतृत्व को पूरा विश्वास है कि यह रुख 2019 के चुनाव में पार्टी की जीत को इतना बड़ा कर देगा कि सारे पिछले रिकार्ड उसकी उपलब्धि के आगे बौने पड़ जाएंगे।
इसीलिए योगी शपथ लेने के बाद किसी सरकार की सार्वभौम प्राथमिकताओं के अनुरूप कार्यनीति को लागू करने की बजाय खुला खेल फर्रुखाबादी खेलने पर आ गये। कहने को तो उन्होंने सड़कों को गड्ढामुक्त करने,जिला मुख्यालयों को 24 घंटे बिजली देने और किसानों के कर्जे माफ करने जैसी घोषणाएं भी की हैं लेकिन उनकी सरकार ने पहचान बनाने के मामले में इन कार्यों की बजाय एंटी रोमियो अभियान, बूचड़खानों पर रोक और मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक के खिलाफ लामबंद होने के लिए उकसाने जैसी कार्रवाइयों पर ज्यादा फोकस किया है। योगी को इस मामले में उन सुझावों की कोई परवाह नहीं है जिनके तहत उऩको मुसलमानों को परेशान करने वाली सरकार की छवि से बचने की सलाह दी जा रही है। हालांकि योगी सायास ऐसा इसलिए कर रहे हैं कि उन्होंने शुरू से ही इस तरह का लक्ष्य निर्धारित कर रखा है या पार्टी में अपने सारे प्रतिद्वंद्वियों से अपना कद बहुत ऊंचा करने का खेल वे खेल रहे हैं। योगी आज यूपी में भाजपाइयों के मन में मोदी से भी बड़े हिंदू नायक हैं। शायद यह अचानक नहीं हुआ।
उन्होंने अपनी सरकार का एक महीना पूरा कर लिया है। दफ्तरों से लेकर थानों तक में साफ-सफाई पर जोर,समय पर दफ्तर पहुंचने की आदत का विकास, पारदर्शिता से काम करने का सरकारी तंत्र पर दबाव इत्यादि पहल से उन्होंने अपनी छवि नेक इरादे वाले नेता की बनाई है। लेकिन जिसे गवर्नेंस कहते हैं उसके मोर्चे पर उनके काम की रफ्तार सुस्त है। समाजवादी पार्टी के शासन में प्रशासन का जिस तरह राजनीतिकरण हुआ था उसमें ऐसे अधिकारियों को तरजीह मिली थी जो तत्कालीन सत्तारूढ़ पार्टी के पिट्ठू के रूप में काम करने में संकोच नहीं करते थे। उनकी इस स्वामीभक्ति से भाजपाइयों का कई जगह दमन हुआ। सरकार बदलने के बाद उम्मीद लगाई गई थी कि इन सबको सजा मिलेगी लेकिन योगी ने कह दिया कि वे अधिकारियों को बदलने की बजाय उनसे ही काम लेकर दिखाएंगे। प्रशासन को स्थिरता देने में उनकी मंशा अच्छी हो सकती है लेकिन घाघ अधिकारियों ने इसकी व्याख्या दूसरे तरह से ही।
उऩके निश्चिंत हो जाने से प्रशासन में वह कसावट नहीं लाई जा सकी है जिसकी भाजपा से अपेक्षा थी। जिसका सबसे प्रतिकूल प्रभाव कानून व्यवस्था पर पड़ा है। संगीन अपराध की घटनाएं प्रदेश में सरकार बदल जाने के बाद भी जारी हैं। यह सरकार के लिए एक बड़ा सबक है। शायद इसीलिए अपनी सरकार का महीना पूरा होने के दिन योगी ने थोक तबादलों की एक सूची जारी की जिसमें कई मंडलायुक्त और जिलाधिकारी बदल दिए गए। ऐसा किया जाना लाजिमी भी है। भारतीय नौकरशाही को औपनिवेशिक मानसिकता विरासत में मिली है इसलिए सरकार से आश्वस्ति मिले के बाद अधिकारियों का अहंकार चरम सीमा पर पहुंच जाता है। कल्याण सिंह के समय इसे देखा जा चुका है। अब वही स्थिति फिर पैदा हो रही है।
कानून व्यवस्था से जुड़े उच्चाधिकारियों को सीयूजी नंबर पर प्राइवेट कॉल बहुत नागवार गुजरती है। पहले तो वे कॉल अटेंड ही नहीं करते और अगर कॉल रिसीव कर भी ली तो व्यक्ति चाहे जितनी व्यक्ति कितनी भी संवेदनशील और महत्वपूर्ण सूचना दे रहा हो लेकिन वे यह कहते हुए उसे डपटने से बाज नहीं आते कि आपको हमे कॉल करने की बजाय अपने थाने और एसपी से बात करनी है। आखिर सीयूजी नंबरों की व्यवस्था क्यों की गई है। लोगों की एप्रोच बड़े से बड़े अधिकारी तक हो सके सीयूजी नंबरों के पीछे यह भावना निहित है। साथ ही यह व्यवस्था अधिकारियों को भी इस संदेश को देने के लिए है कि कितनी भी बड़ी कुर्सी पर पहुंचने के बाद भी वह तकलीफ के मारे अंतिम आदमी की बात सुनने में कोई कोताही न करें। अगर अधिकारी इस धारणा को गुड़-गोबर करने पर आमादा हैं तो योगी सरकार को अपनी उंगलियां टेढ़ी करनी पड़ेगी। भले ही मक्कार अधिकारी को एक हफ्ते में ही क्यों न हटा देना पड़े।
इस बीच एक और परसेप्शन सामने आया है जिसे लेकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पहली स्टेज पर ही सतर्कता बरतने की जरूरत महसूस होनी चाहिए। उन्होंने जो निजी स्टाफ बनाया है उसमें जाति विशेष के अधिकारियों को तरजीह लोगों को अखरी है और सोशल मीडिया पर कनखियों से इसकी आलोचना हुई है। इस बीच योगी आदित्यनाथ पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के जयंती समारोह में गये। जिसका संयोजन बाहुबली विधायक राजा भइया और यशवंत सिंह ने किया था। राजा भइया ने सपा की सरकारों में लंबे समय तक रहकर काफी माल काटा है। उनकी छवि लोगों के बीच अच्छी नहीं है इसलिए योगी जिस तरह से दूसरे बदनाम लोगों से एलर्जी जताते हैं वैसे ही उन्हें राजपूत समाज के विवादित लोगों को भी ट्रीट करना होगा।
चंद्रशेखऱ की जयंती बढ़-चढ़कर सपा ने मनाई थी क्योंकि राजनीति में बाहुबल को बढ़ाने में चंद्रशेखर ने जो भूमिका अदा की है वह कोई दूसरा नेता नहीं कर पाया। ऐसे गुण पर सपा का न्योछावर होना ठीक है। भाजपा के लिए शायद यह बहुत हितकर नहीं होगा। चंद्रशेखऱ को समाजवादी नीतियों में आस्था रखने वाला नेता बताकर उनका महिमामंडन किया गया लेकिन हकीकत जानने वाले मानते हैं कि चंद्रशेखर सिर्फ एक जातिवादी नेता थे। उन्होंने सबसे पहले शुरुआत की जाति विशेष के माफियाओं को खुलेआम राजनीतिक स्वीकृति प्रदान करने की। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने के अपराध में उन्होंने जनता दल को तहस-नहस कर दिया। किस मानसिकता के तहत यह छिपा नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी जब बाबा साहब अंबेडकर का लगातार महिमागान करके समाज के वंचित और शोषित तबकों में पार्टी की जड़े फैला रहे हों। उनके प्रति दुराग्रह रखने वाले किसी नेता के लिए योगी अनुरक्ति उन पर महंगी पड़ सकती है।
हम भी कहेंगे कि योगी के रंग-ढंग बताते हैं कि उन्हें काफी आगे तक जाना है लेकिन अगर कुछ मुद्दों पर उन्होंने सावधानी का परिचय न दिया तो उनकी रफ्तार पर जल्द ही ब्रेक भी लग सकता है। इसका ख्याल वे जरूर रखें।
योगी आदित्यनाथ की उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में सफलतापूर्वक कार्य करने की राह इतनी आसान नहीं है। उन्होंने अभी कुछ खास नहीं किया लेकिन सादगी और ईमानदारी के उच्चतम प्रतिमानों का निर्वाह करने के कारण उनकी छवि बेहद चमकदार बनकर उभरी है। उनकी छवि की इस चकाचौंध को देखते हुए एक बड़ा वर्ग यह मानने लगा है कि उत्तर प्रदेश के सीएम की कुर्सी उनके करियर का सिर्फ पड़ाव है, वे इससे बहुत आगे तक जाने का मंसूबा मन में साधे हुए हैं। पता नहीं उनके बारे में इस तरह की भविष्यवाणी ने कहीं उनको लेकर भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को चौकन्ना हो जाने की स्थिति में तो खड़ा नहीं कर दिया है। लेकिन केंद्रीय नेतृत्व का संशय योगी के मामले में फिलहाल अभी कहीं झलक नहीं रहा। जो योगी के लिए संतोषप्रद है।
दरअसल योगी के लिए मुश्किलें ऊपर से नहीं अभी उनकी सरकार और यूपी में ही पार्टी के अंदर हैं। पंचम तल पर मुख्यमंत्री के लिए आरक्षित कक्ष में उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या द्वारा कब्जा जमाने का प्रयास करने से यह बात सामने आ चुकी है कि जो नाम मुख्यमंत्री पद के लिए फैसला होने के पूर्व तक खबरों में तैरते रहे थे उन्होंने अपने आपको कहीं न कहीं इस रूप में देखने की मानसिकता बना ली है। पंचम तल के मुख्यमंत्री कक्ष के विवाद को योगी ने तत्काल ही बहुत सूझ-बूझ के साथ सुलझा लिया लेकिन यह एक बानगी है कि पार्टी और सरकार के एक वर्ग की यह मानसिकता सरकार के अऩुशासन में कितनी घातक साबित हो सकती है।
समानांतर सत्ता के रूप में कार्य करने की जुर्रत दिखाने वाले अकेले केशव मौर्या नहीं हैं। कई और भी उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगी एेसी कतार में खड़े हैं। योगी को लेकर कहा जा रहा है कि जबसे उन्होंने मुख्यमंत्री पद संभाला है, टेलीविजन चैनलों के पर्दे पर मोदी गायब हो गए हैं। सिर्फ योगी ही योगी छाए रहते हैं। इससे मोदी को तो कोई समस्या नहीं दिखाई देती लेकिन योगी के महत्वाकांक्षी मंत्री इस मामले में उन्हीं से होड़ कर रहे हैं। जो मीडिया की सुर्खियों में योगी से आगे दिखने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते। कुछ जूनियर मंत्री तक ऐसे अरमान पाले हुए हैं। यह केवल प्रचार लोलुपता का सवाल नहीं है। अपने क्षेत्र में खुद मुख्तार-जागीरदार के रूप में उनकी प्रस्तुति कहीं न कहीं योगी की सर्वोपरिता को चुनौती देने वाली है। जिसमें ढील जारी रही तो आगे चलकर सत्ता के कई केंद्र प्रदेश में स्थापित हो सकते हैं।
एक ओर योगी एक के बाद एक अखिलेश सरकार के फैसले पलटते जा रहे हैं। उन्होंने प्रदेश की सभी सरकारी योजनाओं से समाजवादी शब्द गायब करा दिया है। समाजवादी पेंशन बंद करने का ऐलान तो वे पहले ही कर चुके थे। अब उन्होंने फ्री स्मार्ट कार्ड स्कीम की योजना भी निरस्त कर डाली है। गोमती रिवरफ्रंट सहित अखिलेश सरकार की प्रमुख योजनाओं की जांच भी ताबड़तोड़ कराई जा रही है। जिससे करोड़ों रुपये बढ़ा-चढ़ाकर स्टीमेट बनाने वाले अधिकारी और उनसे जुड़े ठेकेदार परेशान हैं। परेशान तो भाजपा के भी लोग हैं जो कि सपा की सरकार के इस हुनर का इस्तेमाल करके पहली ही साल में कितना कुछ कमा लेने का ख्वाब पाले बैठे थे।
योगी के इस रवैये से एक महीने के कार्यकाल में उनकी सरकार की नकारात्मक सोच हावी होकर सामने आयी है। जिसे सरकार की छवि के लिए ठीक नहीं कहा जा सकता। लेकिन योगी इन फैसलों से यह जाहिर कर रहे हैं कि भाजपा विरोधी दिग्गजों से सखाबुद्धि का खेल उन्हें पसंद नहीं है। पर यह भी खबरें आ रही हैं कि उनके मंत्री दूसरी पार्टियों के नेताओं से मधुर सम्बंधों का निर्वाह करने में चूक नहीं कर रहे। चूंकि जोड़तोड़ के मंत्र में उनका पहले विश्वास है और यह यकीन अब उनकी आदत में तब्दील हो चुका है। ऐसे में अगर बदनाम धुरंधरों को योगी की सरकार का संरक्षण मिलता जनमानस में दिखाई पड़ता है तो यह उनकी साख के लिए जहर बन जाएगा।
मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पहले तक यह मान्यता थी कि भारत में केंद्रीय सत्ता के दरवाजे तक पहुंचने के लिए समाज की बहुलतावादी संरचना के अनुरूप समायोजन और निदा जरूरी है। कट्टर हिंदूवादी रुख का नेता किसी राज्य में तो सफल हो सकता है लेकिन इसके बाद उसके लिए स्वीकार्यता संभव नहीं है। लालकृष्ण आडवाणी ने इसी तरह की स्वीकार्यता के प्रलोभन में पाकिस्तान के जनक जिन्ना के महिमामंडन की ऐसी चूक की कि उनके सारे पुण्य एक ही बार में तिरोहित हो गये और उनका प्रभावशाली राजनैतिक करियर दुखांत पर पहुंच गया।
मोदी युग में भाजपा को अकेले दम पर स्पष्ट बहुमत मिलना मूर्तिभंजन परिघटना के रूप में दर्ज हुआ। एकतरफा कट्टरता की छवि से भी लक्ष्यसिद्धि हो सकती है, इस आत्मविश्वास के बाद तमाम ऊहापोह को तिलांजलि देकर आदित्यनाथ योगी को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला कर दिया गया। यह देश की राजनीति में एक निर्णायक बदलाव है और भाजपा के अनुदार नेतृत्व को पूरा विश्वास है कि यह रुख 2019 के चुनाव में पार्टी की जीत को इतना बड़ा कर देगा कि सारे पिछले रिकार्ड उसकी उपलब्धि के आगे बौने पड़ जाएंगे।
इसीलिए योगी शपथ लेने के बाद किसी सरकार की सार्वभौम प्राथमिकताओं के अनुरूप कार्यनीति को लागू करने की बजाय खुला खेल फर्रुखाबादी खेलने पर आ गये। कहने को तो उन्होंने सड़कों को गड्ढामुक्त करने,जिला मुख्यालयों को 24 घंटे बिजली देने और किसानों के कर्जे माफ करने जैसी घोषणाएं भी की हैं लेकिन उनकी सरकार ने पहचान बनाने के मामले में इन कार्यों की बजाय एंटी रोमियो अभियान, बूचड़खानों पर रोक और मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक के खिलाफ लामबंद होने के लिए उकसाने जैसी कार्रवाइयों पर ज्यादा फोकस किया है। योगी को इस मामले में उन सुझावों की कोई परवाह नहीं है जिनके तहत उऩको मुसलमानों को परेशान करने वाली सरकार की छवि से बचने की सलाह दी जा रही है। हालांकि योगी सायास ऐसा इसलिए कर रहे हैं कि उन्होंने शुरू से ही इस तरह का लक्ष्य निर्धारित कर रखा है या पार्टी में अपने सारे प्रतिद्वंद्वियों से अपना कद बहुत ऊंचा करने का खेल वे खेल रहे हैं। योगी आज यूपी में भाजपाइयों के मन में मोदी से भी बड़े हिंदू नायक हैं। शायद यह अचानक नहीं हुआ।
उन्होंने अपनी सरकार का एक महीना पूरा कर लिया है। दफ्तरों से लेकर थानों तक में साफ-सफाई पर जोर,समय पर दफ्तर पहुंचने की आदत का विकास, पारदर्शिता से काम करने का सरकारी तंत्र पर दबाव इत्यादि पहल से उन्होंने अपनी छवि नेक इरादे वाले नेता की बनाई है। लेकिन जिसे गवर्नेंस कहते हैं उसके मोर्चे पर उनके काम की रफ्तार सुस्त है। समाजवादी पार्टी के शासन में प्रशासन का जिस तरह राजनीतिकरण हुआ था उसमें ऐसे अधिकारियों को तरजीह मिली थी जो तत्कालीन सत्तारूढ़ पार्टी के पिट्ठू के रूप में काम करने में संकोच नहीं करते थे। उनकी इस स्वामीभक्ति से भाजपाइयों का कई जगह दमन हुआ। सरकार बदलने के बाद उम्मीद लगाई गई थी कि इन सबको सजा मिलेगी लेकिन योगी ने कह दिया कि वे अधिकारियों को बदलने की बजाय उनसे ही काम लेकर दिखाएंगे। प्रशासन को स्थिरता देने में उनकी मंशा अच्छी हो सकती है लेकिन घाघ अधिकारियों ने इसकी व्याख्या दूसरे तरह से ही।
उऩके निश्चिंत हो जाने से प्रशासन में वह कसावट नहीं लाई जा सकी है जिसकी भाजपा से अपेक्षा थी। जिसका सबसे प्रतिकूल प्रभाव कानून व्यवस्था पर पड़ा है। संगीन अपराध की घटनाएं प्रदेश में सरकार बदल जाने के बाद भी जारी हैं। यह सरकार के लिए एक बड़ा सबक है। शायद इसीलिए अपनी सरकार का महीना पूरा होने के दिन योगी ने थोक तबादलों की एक सूची जारी की जिसमें कई मंडलायुक्त और जिलाधिकारी बदल दिए गए। ऐसा किया जाना लाजिमी भी है। भारतीय नौकरशाही को औपनिवेशिक मानसिकता विरासत में मिली है इसलिए सरकार से आश्वस्ति मिले के बाद अधिकारियों का अहंकार चरम सीमा पर पहुंच जाता है। कल्याण सिंह के समय इसे देखा जा चुका है। अब वही स्थिति फिर पैदा हो रही है।
कानून व्यवस्था से जुड़े उच्चाधिकारियों को सीयूजी नंबर पर प्राइवेट कॉल बहुत नागवार गुजरती है। पहले तो वे कॉल अटेंड ही नहीं करते और अगर कॉल रिसीव कर भी ली तो व्यक्ति चाहे जितनी व्यक्ति कितनी भी संवेदनशील और महत्वपूर्ण सूचना दे रहा हो लेकिन वे यह कहते हुए उसे डपटने से बाज नहीं आते कि आपको हमे कॉल करने की बजाय अपने थाने और एसपी से बात करनी है। आखिर सीयूजी नंबरों की व्यवस्था क्यों की गई है। लोगों की एप्रोच बड़े से बड़े अधिकारी तक हो सके सीयूजी नंबरों के पीछे यह भावना निहित है। साथ ही यह व्यवस्था अधिकारियों को भी इस संदेश को देने के लिए है कि कितनी भी बड़ी कुर्सी पर पहुंचने के बाद भी वह तकलीफ के मारे अंतिम आदमी की बात सुनने में कोई कोताही न करें। अगर अधिकारी इस धारणा को गुड़-गोबर करने पर आमादा हैं तो योगी सरकार को अपनी उंगलियां टेढ़ी करनी पड़ेगी। भले ही मक्कार अधिकारी को एक हफ्ते में ही क्यों न हटा देना पड़े।
इस बीच एक और परसेप्शन सामने आया है जिसे लेकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पहली स्टेज पर ही सतर्कता बरतने की जरूरत महसूस होनी चाहिए। उन्होंने जो निजी स्टाफ बनाया है उसमें जाति विशेष के अधिकारियों को तरजीह लोगों को अखरी है और सोशल मीडिया पर कनखियों से इसकी आलोचना हुई है। इस बीच योगी आदित्यनाथ पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के जयंती समारोह में गये। जिसका संयोजन बाहुबली विधायक राजा भइया और यशवंत सिंह ने किया था। राजा भइया ने सपा की सरकारों में लंबे समय तक रहकर काफी माल काटा है। उनकी छवि लोगों के बीच अच्छी नहीं है इसलिए योगी जिस तरह से दूसरे बदनाम लोगों से एलर्जी जताते हैं वैसे ही उन्हें राजपूत समाज के विवादित लोगों को भी ट्रीट करना होगा।
चंद्रशेखऱ की जयंती बढ़-चढ़कर सपा ने मनाई थी क्योंकि राजनीति में बाहुबल को बढ़ाने में चंद्रशेखर ने जो भूमिका अदा की है वह कोई दूसरा नेता नहीं कर पाया। ऐसे गुण पर सपा का न्योछावर होना ठीक है। भाजपा के लिए शायद यह बहुत हितकर नहीं होगा। चंद्रशेखऱ को समाजवादी नीतियों में आस्था रखने वाला नेता बताकर उनका महिमामंडन किया गया लेकिन हकीकत जानने वाले मानते हैं कि चंद्रशेखर सिर्फ एक जातिवादी नेता थे। उन्होंने सबसे पहले शुरुआत की जाति विशेष के माफियाओं को खुलेआम राजनीतिक स्वीकृति प्रदान करने की। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने के अपराध में उन्होंने जनता दल को तहस-नहस कर दिया। किस मानसिकता के तहत यह छिपा नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी जब बाबा साहब अंबेडकर का लगातार महिमागान करके समाज के वंचित और शोषित तबकों में पार्टी की जड़े फैला रहे हों। उनके प्रति दुराग्रह रखने वाले किसी नेता के लिए योगी अनुरक्ति उन पर महंगी पड़ सकती है।
हम भी कहेंगे कि योगी के रंग-ढंग बताते हैं कि उन्हें काफी आगे तक जाना है लेकिन अगर कुछ मुद्दों पर उन्होंने सावधानी का परिचय न दिया तो उनकी रफ्तार पर जल्द ही ब्रेक भी लग सकता है। इसका ख्याल वे जरूर रखें।
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