गाँधी जयंती विशेष!





आत्मकथाओं के इस बड़े ढेर से अलग है गांधीजी की आत्मकथा, जो बिलकुल अधूरी होते हुए भी सच पूरा बताती है। इसका शीर्षक बड़ा अटपटा है : 'सत्य के प्रयोग' अथवा 'आत्मकथा'। इसे लिखते समय गांधीजी का जोर आत्मकथा पर नहीं था इसलिए उस शब्द को शीर्षक में पीछे रखा गया। 'सत्य के प्रयोग' का वर्णन मुख्य था इसलिए उसे आगे रखा गया। निकट के साथियों ने खूब आग्रह किया तब कहीं जाकर गांधीजी ने आत्मकथा लिखना तय किया। शुरू तो किया लिखना, लेकिन उन्हीं के शब्दों में, 'फुलस्केप का एक पन्ना भी पूरा नहीं हो पाया था कि इतने में बंबई में ज्वाला प्रकट हुई और मेरा शुरू किया हुआ काम अधूरा रह गया।'



यह बात सन्‌ 1921 की है। उसके बाद तो गांधीजी एक के बाद एक नए कामों में लगते चले गए। बीच में उन्हें गिरफ्तार कर यरवदा जेल, पुणे में रखा गया। यहां एक बार फिर निकट के साथियों ने अपना आग्रह और भी जोरदार ढंग से रखा। तब जेल में भी उनके हाथ में ढेरों तरह के काम थे। जेल से छूटने पर फिर वही तकाजा। मांग थी कि जल्दी से आत्मकथा लिख डालें और फिर वह और भी जल्दी पुस्तक रूप में छप जाए, पर गांधीजी के पास वक्त कहां था? 


उनके बारे में यह कहा जाने लगा था कि वह व्यक्ति अपने समय का मालिक था, पर अपनी घड़ी का गुलाम! घड़ी की सुइयां देख वे काम निपटाते थे, समय के एकदम पाबंद। अपनी कुटिया में साधारणजनों से लेकर ऊंचे दर्जे के नेताओं से दिनभर मिलते, हर रोज अनगिनत पत्र, नोट लिखते। एक हाथ लिखते-लिखते थक जाता तो दूसरे हाथ से भी लिखने का अभ्यास कर डाला था। फिर आत्मकथा लिखकर उन्हें कोई लेखक तो बनना नहीं था। 


यह वही दौर था, जब वे देश को एक नई भूमिका के लिए तैयार करने में दिन-रात जुटे थे। अपनी बात सब तक पहुंचाने के लिए उनके अपने अखबार भी थे। इसके लिए उन्हें अपनी तमाम व्यस्तताओं के बाद भी हर हफ्ते कुछ न कुछ लिखना ही होता था। हल निकाला गांधीजी ने, 'तो फिर आत्मकथा क्यों न लिखूं।' इस तरह यह विचित्र कथा मूल गुजराती में 29 नवंबर 1925 से 3 फरवरी 1929 तक साप्ताहिक किस्तों में 'नवजीवन' अखबार में छपी। फिर इसी का अंग्रेजी अनुवाद 3 दिसंबर 1925 से 7 फरवरी 1929 तक 'यंग इंडिया' के अंकों में क्रमश: छपा था। 


कई मिले-जुले कारणों से हिन्दी में अनुवाद का पहला खंड पुस्तक रूप में पहली बार सस्ता साहित्य मंडल, दिल्ली से सन्‌ 1929 में छपा और फिर इसके अनेक संस्करण सामने आए। लेकिन गांधीजी की सभी रचनाओं का कॉपीराइट रखने वाला नवजीवन ट्रस्ट हिन्दी संस्करण पहली बार 1957 में ही छाप सका था। तब से अब तक इसके अनेक संस्करण निकल चुके हैं।


इन तीन भाषाओं में आज इस पुस्तक की कोई 14,56,000 प्रतियां पाठकों तक पहुंची हैं। अन्य भारतीय भाषाएं जोड़ें तो मलयालम में 4 लाख 45 हजार, तमिल में लगभग 1 लाख, कन्नड़ में 1 लाख 20 हजार, मराठी में कोई 1 लाख से ऊपर, तेलुगु में 85 हजार, उड़िया में 34 हजार, असमिया में 15 हजार, बंगला में 10 हजार और उर्दू में हमारे देश में 11 हजार प्रतियां छप चुकी हैं। पंजाबी और संस्कृत में भी यह छपी है, पर इन भाषाओं में कितनी प्रतियां छपीं, यह पता नहीं चल पाया है। पाकिस्तान में भी इसका उर्दू संस्करण वहीं के प्रकाशकों ने छापा है।


भारतीय भाषाओं के अलावा सत्य के इस विचित्र प्रयोग को दुनिया की अनेक भाषाओं में भी अनूदित किया जा चुका है। इतना कि इस सबकी ताजी जानकारी जुटा पाना मुश्किल है। अंग्रेजी में यहां भी छपी और देश के बाहर भी छपी। फिर स्पेनी, पुर्तगाली, फ्रांसीसी, इतालवी, जर्मन, पोलिश, स्विस, तुर्की भाषा के अलावा अरबी में भी इसका अच्छा स्वागत हुआ। चीनी और जापानी, नेपाली और तिब्बती भाषा के संस्करण भी उपलब्ध हैं। कुछ ऐसी भी भाषाओं में इसके अनुवाद हुए हैं जिनके नाम प्राय: हम कम ही सुन पाते हैं, जैसे सरर्बोक्रोट!


सन्‌ 1927 से अब तक अनेक भाषाओं में पाठकों के हाथ लगातार पहुंचती जा रही इस आत्मकथा में ऐसा है क्या? सच पूछा जाए तो इसमें गांधीजी की कहानी तो बस सूत्र की तरह, धागे की तरह चलती है। मुख्य तो है उस धागे में पिरोए गए उनके 'सत्य के प्रयोग'। खुद गांधीजी के शब्दों में, 'मुझे आत्मकथा कहां लिखनी है? मुझे तो आत्मकथा के बहाने सत्य के जो अनेक प्रयोग मैंने किए हैं, उनकी कथा लिखनी है।' इसीलिए पाठक को इसमें गांधीजी के पूरे जीवन को कसकर रखी राजनीति, उसके अन्य नायक, खलनायकों के बारे में कुछ भी वर्णन नहीं मिल पाएगा। वे तो इस कथा में उन प्रयोगों का वर्णन करते जाते हैं जिन्हें उन्होंने सत्य के अलावा आध्यात्मिक प्रयोग भी कहा है। 


इसका कारण बताते हुए वे कहते हैं, 'राजनीति के क्षेत्र में हुए मेरे प्रयोगों को तो अब (आत्मकथा लिखते समय) हिन्दुस्तान भी जानता है, यहीं नहीं, बल्कि थोड़ी-बहुत मात्रा में सभ्य कही गई दुनिया भी जानता है।' इस आत्मकथा में ब्रितानी राज, कांग्रेस, हिन्दू-मुसलमान या दक्षिण अफ्रीका के दौर में वहीं के शासकों के खिलाफ रत्तीभर भी जहर नहीं मिलेगा।


आत्मकथा में गांधीजी के विभिन्न संघर्षों, सत्याग्रहों का वर्णन, विवरण कई जगहों पर आता है, लेकिन वे लिखते हैं, 'सत्याग्रह में संघर्ष व्यक्तियों अथवा पक्षों के बीच नहीं माना जाता, सत्य और असत्य, सही और गलत के बीच माना जाता है। ऐसे मौकों पर अपने हिस्से की सच्चाई को नहीं, पूरी सच्चाई को ठीक से पकड़ लो और उसको पकड़कर झूठ को, असत्य को पराजित करने के काम में लगा दो।'


उन्हीं के शब्दों में, 'इस तरह न कोई जीतता है, न कोई विजेता होता है। किसी को भी ऐसा नहीं लगता कि हम हार गए, हमने कुछ खो दिया है या हमारा तो अपमान हो गया है। जिस सीमा तक सत्य की विजय होती है, उस सीमा तक संबंधित पक्षों में से प्रत्येक पक्ष उल्लासित और विजय का साधन बनने में अपने को भागीदार मानता है। सच बात पकड़े रहने में कानून अपने आप हमारी मदद के लिए आ जाते हैं।'


यह आत्मकथा ही हमें बताती है कि चंपारण सत्याग्रह में गांधीजी ने नील की खेती को लेकर अंग्रेजों के अत्याचारों में कैसे उस सच को पकड़ा, फिर उसे अंत तक पकड़े रहे और इसी कारण अंग्रेजों का कानून उन्हें सजा देकर भी उनकी मदद के लिए दौड़ ही पड़ा। 'नील का धब्बा' नामक शीर्षक से लिखा यह अंश इस बात को बताता है कि गांधीजी ने यह मामला यूं ही नहीं उठा लिया था।


सच्चाई जानने में कितनी मेहनत करनी पड़ी, यह उस प्रसंग से ही पता चलता है। एक पक्ष था अत्याचार करने वाले अंग्रेजों का तो दूसरा था भोले-भाले किसानों का। तीसरा पक्ष ऐसे प्रसिद्ध वकीलों का था, जो इन गरीब किसानों के मुकदमे लड़ते थे। ऐसे मुकदमों की जोरदार पैरवी से लोग अपने मुवक्किलों के लिए कुछ व्यक्तिगत आश्वासन पा लेते थे। कभी-कभी असफल भी हो जाते थे। 


गांधीजी लिखते हैं, 'इन भोले किसानों से मेहनताना सभी लेते थे, त्यागी होते हुए भी ब्रजकिशोर बाबू या राजेन्द्र बाबू मेहनताना लेने में संकोच नहीं रखते थे। उनकी दलील यह थी कि पेशे के काम में मेहनताना न लें तो हमारा घर खर्च नहीं चल सकता और हम लोगों की मदद भी नहीं कर सकते। उनके मेहनताने में तथा बंगाल और बिहार के बैरिस्टरों को दिए जाने वाले मेहनताने के कल्पना में न आ सकने वाले आंकड़े सुनकर मैं सुन्न रह गया।'


यहां तो गांधीजी ने उस समय के दो सबसे बड़े वकीलों और सबसे प्रसिद्ध सार्वजनिक व्यक्तियों के नाम लिए, पर आगे के वर्णन में नाम हटाकर लिखते हैं, 'साहब को हमने ओपिनियन (राय) जानने के लिए दस हजार रुपए दिए। हजार से कम की तो मैंने बात ही नहीं सुनी।'


इस सबको जान लेने के बाद गांधीजी की पहली राय तो थी, 'अब ये मुकदमे लड़ना तो हमें बंद ही कर देना चाहिए। जो रैयत इतनी कुचली हुई हो, जहां सब इतने भयभीत रहते हों, वहां कचहरियों के जरिए थोड़े ही इलाज हो सकता है। लोगों का डर निकालना उनके रोग की असली दवा है। यह 'तिनकठिया' प्रथा (जबरन नील की खेती) न जाए, तब तक हम चैन से नहीं बैठ सकते।'


उधर गांधीजी ने हजारों किसानों से जो बातचीत की, उसमें भी सच्चाई का पूरा ध्यान रखा। हरेक किसान के बयान लेते समय, अंग्रेजों के खिलाफ शिकायत लिखवाते समय एक अच्छे वकील की तरह जिरह की जाती थी। जिस किसी भी शिकायत में झूठ, अतिशयोक्ति की गंध आती, उस पूरे मामले को वहीं छोड़ दिया जाता था। झूठ के पुलिंदे एकत्र कर सच की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। इसे गांधीजी ने 'दूध में जहर' मिलाने जैसा माना था।


गांधीजी का सच, गांधीजी का राम दोनों पक्षों के बीच कैसा मजबूत सेतु बन जाता था- ऐसे किस्सों से, ऐसे अनेक प्रयोगों से भरी है यह आत्मकथा। इसमें बस 1921 तक का ही वर्णन है। इसके बाद का उनका जीवन और भी अधिक सार्वजनिक होता गया। उन्हीं के शब्दों में, 'शायद ही कोई ऐसी चीज हो जिसे लोग न जानते हों।' इसलिए यहां आकर वे अपने पाठकों से विदा लेते हैं। 


जिस सत्य के आग्रह से उन्होंने आत्मकथा लिखना प्रारंभ किया था, उसे इन सब विवरणों को बताने के बाद वे और भी गहरे उतरकर लिखते हैं। 'सत्य को जैसा मैंने देखा है जिस मार्ग को देखा है, उसे बताने का मैंने सतत प्रत्यन किया है, क्योंकि मैंने यह माना है कि उससे पाठकों के मन में सत्य और अहिंसा के विषय में अधिक आस्था उत्पन्न होगी।' 


पूरे सच की यह अधूरी कथा दूध में धुली है और जहर से घुली आज की दुनिया में इसीलिए वर्षों बाद भी हल्के-हल्के तहलका मचा रही है। (सप्रेस)


(अनुपम मिश्र (5 जून 1948-19 दिसंबर 2016) जाने-माने लेखक, संपादक और गांधीवादी पर्यावरणविद थे। 'आज भी खरे हैं तालाब', 'राजस्थान की रजत बूंदें' जैसी उनकी लिखी किताबें जल संरक्षण की दुनिया में मील के पत्थर की तरह हैं। वे वर्षों तक गांधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़े रहे और पत्रिका 'गांधी मार्ग' का संपादन किया।)

CONVERSATION

0 comments:

Post a Comment