-ः ललित गर्ग:-
आज के
भौतिकवादी एवं सुविधावादी युग में जबकि हर व्यक्ति अधिक से अधिक सुख भोगने
के प्रयत्न कर रहा है, ऐसे समय में एक जैनसंत जैन धर्म के कठोर तप -
वर्षीतप का पचासवां वर्षीतप कर एक नया इतिहास बनाया है। अध्यात्म के
क्षेत्र में तप का सर्वाधिक महत्त्व है। भारत के ख्यातनामा
ऋषि-महर्षि-संतपुरुष आत्मसाक्षात्कार के लिए बड़ी-बड़ी तपस्याएँ करते रहे हैं
और उत्कृष्ट कोटि की साधना में लीन रहे हैं। जो एक आत्मा को समग्र रूप से
जान लेता है वह पूरे ब्रह्मांड को जान लेता है। आत्मा की पहचान अथवा
आत्मोपलब्धि के बाद व्यक्ति में होने वाली युगदर्शन की क्षमता सहज ही पुष्ट
हो जाती है। इस दृष्टि से उसी युगद्रष्टा को प्रशस्त माना जा सकता है, जो
परमार्थ की वेदिका पर खड़ा होकर युगबोध देता है। आज ऐसे संतपुरुषों की
अपेक्षा है जो आत्मद्रष्टा, युगद्रष्टा और भविष्यद्रष्टा एक साथ हों। इस
दृष्टि से आचार्य श्रीमद् विजय वसंत सूरीश्वरजी एक विलक्षण उदाहरण हैं। वे
एक मनीषी संत और आध्यात्मिक योगी के साथ-साथ घोर तपस्वी हैं। जिन्होंने 50
वर्षीतप कर एक नया इतिहास रचा है।
वर्षीतप अनेक समस्याओं का
समाधान है। शरीर की पहली आवश्यकता है रोटी। रोटी के बिना शरीर सौष्ठव,
सौन्दर्य और जीवन नहीं रह सकता। रोटी की जुगाड़ में ही आदमी की हर सुबह होती
है और हर शाम ढलती है। व्यक्ति उम्र भर की अपनी शक्ति, समय, सोच, श्रम,
सुख सबकुछ रोटी के नाम लिख देता है। यदि भूख की समस्या नहीं होती तो संसार
में न इतना दुख होता, न शोषण, न कानून की सीमाएं टूटतीं, न न्याय का कद
छोटा पड़ता, न मनुष्य-मनुष्य के बीच ऊंच-नीच का भेदभाव जनमता और न वैर-विरोध
की दीवारें खड़ी होतीं। सारे पापों की जन्मभूमि है पेट और संग्रह की भूख।
भोजन सबको चाहिए। चाहे अमीर हो या गरीब, मनुष्य हो या संत अथवा पशु-पक्षी
वर्ग इसके अभाव में मौत की दस्तक होने लगती है। इसलिए भोजन जीवन का दूसरा
नाम है। भूख को जीतना बहुत कठिन तपस्या है। इस तपस्या की शुरुआत तब होती है
जब रोटी के प्रति व्यक्ति का दृष्टिकोण बदल जाता है। मूल्य पदार्थ का
नहीं, आसक्ति का है। इसी आसक्ति का संयमन करना तपस्या है।
जैनधर्म
में वर्षीतप की साधना भगवान ऋषभ से जुड़ी हुई है और इसके साधक को एक वर्ष
तक लगातार तपस्या करनी होती है। विश्व परिदृश्य पर एक विशेष अनुष्ठान के
रूप में प्रतिष्ठित धार्मिक उपक्रम का नाम है -उपवास। दुनिया के लगभग सभी
धर्मों एवं धर्मग्रंथों में उपवास का प्रावधान है। यह अन्तर्राष्ट्रीय
ख्याति प्राप्त विश्वमान्य धार्मिक उपक्रम है। जैन, बौद्ध, हिन्दु,
मुसलमान, सिक्ख, ईसाई आदि सभी मतावलंबी धर्मनिष्ठा से उपवास करते हैं।
लेकिन जैन धर्म का वर्षीतप का उपवास और साधना सबसे विलक्षण, कठोर एवं
अद्भुत है, इस असंभव सरीखे तप को करने वाले लोग सचमुच प्रणम्य है, लेकिन 50
वर्ष तक वर्षीतप करके आचार्य वसन्त सूरिजी ने तपस्विता एवं तेजस्विता का
सफरनामा तय किया है। इस तपोयज्ञ में तपस्वी का सिर्फ शरीर ही नहीं, मन,
इन्द्रियां, कषाय सभी कुछ तपते हैं।
इसी 29 अप्रैल 2017 को
अक्षय तृतीया के अवसर पर प्रमुख ऐतिहासिक एवं जैन तीर्थ हस्तिनापुरजी में
वे अपने 50वें वर्षीतप का पारणा कर तप की चेतना का बहुमान करेंगे। यूं तो
इस दिन प्रतिवर्ष हजारों साधक एवं तपस्वी देश के कोने-कोने से हस्तिनापुरजी
में पहुंचकर पारणा करते है और इस वर्ष भी करेंगे। लेकिन उनमें 50वें
वर्षीतप का पारणा संभवतः उस पवित्र माटी के इतिहास की पहली और ऐतिहासिक
घटना होगी और जब सभ्यता और संस्कृति को एक नया मुकाम प्राप्त होगा।
तपस्वी
सम्राट के नाम से चर्चित आचार्य श्रीमद् विजय वसंत सूरीश्वरजी सतत्
महान् तपोधनी, शांतमूर्ति, परोपकारी संत हैं। आप वर्तमान में आचार्य
श्रीमद् विजय नित्यानंद सूरीश्वरजी की परंपरा के प्रखर एवं घोर तपस्वी संत
हैं। आपका जन्म वि॰सं॰ 1998 दीवाली के दिन जीरा, जिला फिरोजपुर (पंजाब) में
हुआ। आपके पिता का नाम लाला अवधूमल तथा माता का नाम श्रीमती वचनदेवी था।
बचपन का नाम यशदेव था। चार-पांच वर्ष की आयु में यशदेव ऐसा बीमार पड़ा कि
उसके बचने की कोई आशा ही नहीं रही थी। डाॅक्टरों-वैद्यों ने कह दिया कि रोग
असाध्य है बच्चा जीवित नहीं रहेगा। हम लोगों के पास इसका कोई इलाज नहीं
है। लाचार होकर माता-पिता ने चिकित्सा करना छोड़ दिया। इन दिनों आचार्य
श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वरजी अपने मुनि समुदाय के साथ जीरा में आए हुए
थे। मरणासन्न पुत्र को अंतिम दर्शन देने के लिए अवधूमल आचार्यश्री को अपने
घर ले गये और रोते हुए कहा कि यदि आप के प्रताप से यह बालक बच गया तो इसे
आपश्री के चरणों में समर्पित कर दूंगा। गुरुदेव ने बालक के सिर पर अपने
हाथों से मंत्रित वासक्षेप डाला और उपाश्रय में वापिस लौट आये। कुछ दिन बाद
बालक एकदम स्वस्थ हो गया। कुछ समय बाद अवधूमल की मृत्यु हो गई। माता ने
अपने वचन का पालन करते हुए इस बालक को आठ वर्ष की आयु में वि॰सं॰ 2007
वैसाख वदी 10 के दिन सादड़ी (राजस्थान) में गुरु वल्लभ ने दीक्षा दी। नाम
मुनिश्री बसंत विजय रखा तथा अपने अन्तेवासी मुनिश्री विचार विजयजी का शिष्य
बनाया।
आचार्य श्रीमद् विजय वसंत सूरीश्वरजी आज के वैज्ञानिक
युग में अपनी कठोर तपस्या के माध्यम से धर्म की वैज्ञानिकता प्रमाणित कर
रहे हैं। लगातार 50 वर्षीतप इसका उदाहरण है। उनकी दृष्टि में तपस्या स्वयं
बदलाव की एक प्रक्रिया है। यह जीवन निर्माण की प्रयोगशाला है। इसमें भौतिक
परिणाम पाने की महत्वाकांक्षा नहीं, सभी चाहो का संन्यास है। इस तप यात्रा
में तपस्वी में अहं नहीं, निर्दोष शिशु भाग जागता है। कष्टों में मन का
विचलन नहीं, सहने का धैर्य रहता है। भोजन न करने का आग्रह नहीं, मन का
अनासक्त दृष्टिकोण जुड़ता है। सचमुच वर्षीतप की साधना जीवन को उजालने एवं
मांजने का एक दुर्लभ अवसर है। क्योंकि आज हर व्यक्ति का मन प्रदूषित है,
वासना एवं लालसा से आक्रांत है। इन्द्रियां उद्धत है। ऐसे समय में
आत्म-शांति, संतुलन एवं मनोदैहिक रोगों के उपचार के लिये वर्षीतप की साधना
एवं उपवास रामबाण औषधि है।
आचार्य वसंत सूरीश्वरजी के पास
लोककल्याणकारी कार्यों की एक लंबी सूची है। चाहे हस्तिनापुर में अष्टापद का
निर्माण हो या जीर्ण-शीर्ण ऐतिहासिक जैन मंदिरों का जीर्णोद्धार, प्रसिद्ध
जैन तीर्थ पालीताना में कमल मंदिर की कल्पना हो या देश के विभिन्न हिस्सों
में शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना, दिल्ली में भव्य वल्लभ स्मारक हो या
सेवा के विविध आयाम- अस्पताल, गौशाला, कन्या छात्रावास- उनकी प्रेरणा के ये
आयाम जन-जन के कल्याण के लिए, संस्कार निर्माण के लिए, शिक्षा, सेवा और
परोपकार के लिए संचालित हैं। उन्होंने गणि राजेन्द्र विजयजी के नेतृत्व में
संचालित सुखी परिवार अभियान के आदिवासी उन्नयन एवं उत्थान के साथ-साथ
परिवार संस्था मजबूती देने के संकल्प में भी निरंतर सहयोग एवं आशीर्वाद
प्रदत्त किया है। उनकी संपूर्ण ऊर्जा संस्कृति और संस्कारों के उन्नयन में
नियोजित हो रही है। आध्यात्मिक एवं धार्मिक सिद्धांतों के अन्वेषण,
प्रशिक्षण और प्रयोग के माध्यम से वे धर्म की तेजस्विता और व्यावहारिकता का
प्रमाण प्रस्तुत कर रहे हैं। वे पवित्र प्रज्ञा के प्रयोक्ता इक्कीसवीं
सदी के प्रेरक आचार्य हैं, वे युग को अध्यात्म का बोधपाठ पढ़ा रहे हैं। उनकी
दिव्य वाणी ने हजारों, लाखों के साधना के राजपथ पर प्रस्थित किया है, उनके
जादुई हाथों के स्पर्श ने न जाने कितने व्यक्तियों में नयी चेतना का संचार
किया। उनके प्रेरक जीवन ने अनेकों की दिशा किरणें बिखेरती रहीं अतः वे
साधक ही नहीं, लाखों साधकों के प्रेरक हैं, जिससे जन-जन का उद्धार हो रहा
है।
आचार्य वसंत सूरीश्वरजी एक महाशक्ति हैं। ज्ञान के महासमंदर
हैं। उनकी महत्ताओं का आकलन संभव नहीं। सत्य के प्रति अंतहीन आस्था है।
परम सत्य के अन्वेषक को अपने ही पुरुषार्थ से स्वयं मार्ग बनाना होता है।
सत्य की अनुभूति अत्यंत वैयक्तिक और निजी है। अपने अस्तित्व का एक-एक क्षण
सत्य के लिए समग्रता से समर्पित किये हुए हंै। उनके हृदय से करुणा का
अजस्रसोत प्रवाहित है। विश्व-क्षितिज पर अशांति की काली छाया है। रक्तपात,
मारकाट की त्रासदी है। मानवीय चेतना का दम घुट रहा है। कारण चाहे राजनीतिक
हो या सामाजिक, आर्थिक हो या धार्मिक, कश्मीर का आतंकवाद हो या सांप्रदायिक
ज्वालामुखी या अन्य दर्दनाक घटनाएँ हिंसा की पराकाष्ठा है। आर्थिक
असंतुलन, जातीय संघर्ष, मानसिक तनाव, छुआछूत आदि राष्ट्र की मुख्य समस्याएँ
मुँह बाए खड़ी हैं। जन-मानस चाहता है, अंधेरों से रोशनी में प्रस्थान।
अशांति में शांति की प्रतिष्ठा किंतु दिशा दर्शन कौन दे? यह अभाव-सा प्रतीत
हो रहा था। ऐसी स्थिति में आचार्य वसंत सूरीश्वरजी की अहिंसक जीवनशैली
वस्तुतः मानव-मानव के दिलो-दिमाग पर गहरा प्रभाव निर्मित कर रहे हंै।
आचार्य
श्री आचार्य वसंत सूरीश्वरजी सरस्वती के वरद् पुत्र इसलिए हैं कि उन्होंने
अनेक ग्रंथों का लेखन एवं प्रकाशन करवाकर सरस्वती के भंडार को खूब अच्छे
साहित्य से भरा है। उनका व्यक्तित्व बहुमुखी, बहुविध, बहु रूपों में
अभिव्यक्त हुआ है। जिस ओर से उन्हें आँकने और देखने की कोशिश करते हैं, उसे
अभिव्यक्ति देने की कोशिश करते हैं कि इतने विराट रूप में अवशेष रह जाता
है। सचमुच उनका व्यक्तित्व विलक्षण और अद्भूत है। इसलिये वे शिष्यों एवं
श्रद्धालुओं के लिए श्रद्धेय बन गए, बहुत सौभाग्य की बात होती है सद्गुरु
का आशीर्वाद उपलब्ध होना। यह भी सृजनात्मक संभावना, जिसके फलस्वरूप आपके
निर्माण की बहुआयामी दिशाएँ उद्घाटित होती गईं। सचमुच आचार्य वसंत
सूरीश्वरजी के जीवन का एक-एक क्षण विकास की रेखाएँ खींचता गया और आज न केवल
मूर्तिपूजक समाज व जैन समाज बल्कि पूरा मानव समाज अपलक आपकी ओर निहार रहा
है कि आप क्या कर रहे हैं तथा आप क्या चाह रहे हैं? वास्तव में आपकी चाह
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जन-जन की राह बन गई है। उन्होंने कहा है कि
स्वस्थ और दीर्घ जीवन का रहस्य है वर्षीतप और आहार संयम। पचास वर्षों से
वर्षीतप के प्रयोगों से उन्होंने आध्यात्मिक ऊंचाइयों का स्पर्श किया है,
अलौकिक क्षमताओं का जागरण किया है। वे शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य के साथ
आध्यात्मिक अनुभवों की अकूत संपदा के स्वामी बन गए। इन सब संदर्भों से यह
विश्वास परिपुष्ट हो जाता है कि धार्मिक आस्थाओं से अनुबंधित वर्षीतप की
साधना और तप आध्यात्मिक उजास का स्रोत है।
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