एक बार श्रीकृष्ण, बलराम और सात्यकि एक वन में भटक गये। उन्होंने एक वृक्ष के नीचे रात्रि बिताने का विचार किया। यह भी निर्णय किया कि प्रत्येक, दो-दो घंटे पहरा देगा। आरंभ में सात्यकि जागता रहा और अन्य दोनों सो गये। थोडी देर बाद एक ब्रह्मराक्षस पेड़ से कूदा। उसने सात्यकि को धमकाया कि वह तीनों को खा जायगा। सात्यकि को क्रोध आया। वह उस राक्षस से युद्ध करने लगा। किन्तु सात्यकि को यह देखकर अत्यंत आश्चमर्य हुआ कि वह राक्षस आकार और शक्ति से बढ़ता ही जा रहा है। सात्यकि क्षुब्ध हो गया। दो घंटे के बाद पूर्णतः थक जाने से उसने बलराम को जगाया और स्वयं सोने के लिये चला गया।
जैसे ही सात्यकि ने अवकाश लिया, राक्षस भी थोड़ी देर के लिये लुप्त हो गया। बलराम जब उठे, तो वह पुनः प्रकट हुआ। बलराम ने उसकी अपार शक्ति को देखा और क्रोध से वे उससे युद्ध करने लगे। किंतु उनकी भी वही दशा हुई। दो घंटे के युद्ध के बाद वे भी थक गये और उन्होंने श्रीकृष्ण को जगाया। राक्षस के सामने अब श्रीकृष्ण थे। वे शांत रहे। उन्होंने हंसीमजाक करते और खेल करते हुए राक्षस पर आघात करना शुरू किया। और कैसा आश्चयर्य ! राक्षस का आकार छोटा होने लगा। अंत में श्रीकृष्णने उसे पकड़कर, अपने वस्त्र के एक कोने में बांध लिया।
प्रातःकाल बलराम और सात्यकि जब उठे तो श्रीकृष्ण को उन्होंने प्रशांत और विश्रांत पाया। मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। और उस समय तो उन्हें भारी आश्चरर्य हुआ, जब उन्होंने देखा कि वह भयंकर राक्षस, एक छोटे से कीड़े के समान, श्रीकृष्ण के वस्त्र के कोने में, बंधा है।
अपनी स्वयं की शक्ति में उत्कट आत्मविश्वाकस से प्रसूत मस्तिष्क की शांति, निश्चि त रूप से शक्ति का अक्षय स्त्रोत होती है। क्रोध एवं उत्तेजना शांत, निर्भय तथा दृढ क्रिया की शक्ति को नष्ट कर देते है। कार्यकर्ता को आत्मविश्वा्स के नाम पर गर्व नही करना चाहिये नही नम्र व सात्विक बनने के चक्कर मे आत्म विश्वास खोना चाहिये ।। कृष्णा पंडित !!
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