कर्मचारियों के तबादलों में कोर्ट का कड़ा रुख़

शिमला। यद्यपि कानून में तबादला दंड के रूप में परिभाषित नहीं है, किंतु फिर भी इसे एक दंड के औजार या हिसाब बराबर करने के रूप में काम में लिया जा रहा है, जिसे कानून की भाषा में न्यायिकेतर (Extra-judicial Punishment) दंड कहा जता है। तबादला किसी शिकायत का कोई हल भी नहीं है। यदि कर्मचारी ने वास्तव में कोई कदाचार किया है तो उसे दंडित किया जाना चाहिए, अन्यथा जो कर्मचारी आज यहां कदाचार से जनता को परेशान कर रहा है, आगे नए स्थान पर जाकर भी जनता को परेशान ही करेगा। तबादले को एक शार्टकट के रूप में प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। वैसे तबादले करने वाले अधिकारी अपना सिरदर्द टालने व राजनैतिक तुष्टिकरण के लिए यह सब ज्यादा कर रहे हैं और देश के न्यायालय भी इस समस्या की जड़ तक नहीं पहुंच पा रहे हैं।

हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने अमिर चंद बनाम हिमाचल राज्य के मामले में 9 जनवरी 2013 को अपने आदेश से प्रदेश के लाखों सरकारी कर्मचारियों के लिए बनाई गई तबादला नीति में संशोधन करने के आदेश दिए हैं, ताकि सभी कर्मचारियों को राजनीतिक द्वेष के चलते प्रताड़ना से बचाया जा सके। न्यायालय ने सरकार को 28 फरवरी तक का समय देते हुए हिदायत दी है कि यदि तबादला नीति में अदालत के दिशा-निर्देशों के अनुसार संशोधन नहीं किए जाते तो यह अदालत की अवमानना माना जाएगा।
न्यायाधीश दीपक गुप्ता व न्यायाधीश राजीव शर्मा की खंडपीठ ने कुछ कर्मचारियों के तबादला आदेशों को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं का एक साथ निपटारा करते हुए उपरोक्त आदेश पारित किए। न्यायालय ने खेद प्रकट करते हुए कहा कि प्रदेश में कर्मचारी, राजनीतिक आकाओं के इशारे पर धड़ल्ले से बदले जाते हैं और जिन कर्मचारियों का कोई राजनीतिक या प्रशासनिक आका नहीं है, उनको बेवजह प्रताडि़त किया जाता है। कुछ कर्मचारी दुर्गम क्षेत्रों में फंसे

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