भोपाल गैस त्रासदी-आज को डसते,कल के जख्म

"नंदा!...नंदा!...उठ जा।कह रहे हैं कि फैक्ट्री से कोई गैस लीक हो गई है।ख़ुशबू की अम्मी खाँसते-खाँसते मर गई।बाहर गोबिंद आँखे धोये जा रहा है।उठ जा नंदा!सब शहर छोड़ रहे हैं।सब भाग रहे हैं।"
अरे, काकी जिसको जाना था ,चला गया।अब नंदा वापस नहीं आएगा।पर तुम तो अपनी जान बचाओ,चलो उठो ,मेरे साथ चलो।
2-3 दिसंबर ,1984 की वो काली रात केवल नंदा की ही मौत का कारण नहीं बनी।बल्कि लाखों लोगों की ज़िंदगियाँ निगल गई।सही कहा है किसी ने उस रात मौत दबे पाँव आयी,और समूचे भोपाल को शमशान और कब्रिस्तान में तब्दील कर गई।सरकारी आंकड़ों में तो तीन हज़ार कुछ लोगों की मौत दर्ज हुई।पर एक गैरकानूनी आंकड़े के मुताबिक मौत का आंकड़ा तीस हज़ार के करीब था।तय आंकड़ों को लेकर आज भी मतभेद है।इस हादसे से तकरीबन 5 लाख लोग प्रभावित हुए।भोपाल शहर में उस समय हाहाकार मच गया,जब 2-3 दिसम्बर की रात को, शहर में स्थित 'यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री' के टैंक नंबर 610, से 'मिथाइल आइसो सायनेड' गैस के भारी मात्रा में रिसाव की खबर आई।
भोपाल गैस त्रासदी दुनिया के औद्योगिक इतिहास की सबसे बड़ी दुर्घटना है।पर क्या इसे हादसा कहना सही होगा?क्या पीड़ितों को आज भी इंसाफ मिल पाया है?उस रात ने भोपाल को जो ज़ख्म दिए,उनका दंश वहाँ के वासी आज भी भोग रहे हैं।आज भी बच्चे मानसिक और शारीरिक विकलांगताओं के साथ पैदा हो रहे हैं।इस त्रासदी ने न केवल मौजूदा पीढ़ी को ज़ख्म दिए बल्कि आने वाली नस्लों को भी तबाह कर दिया।
उस रात फैक्ट्री के टैंक नंबर 610 में पानी जाने से टैंक में एक रिएक्शन हुआ,टैंक में विस्फोट हुआ और समूचे भोपाल ने उस विस्फोट की खामोश चीखें सुनी,जो आज भी शहर की हवाओं में गूँज रहीं हैं।धीरे-धीरे टैंक से ज़हरीली गैस रिसने लगी और शहर में फैल गई।लोगों को साँस लेने में दिक्कत होने लगी,आँखों मे जलन होने लगी और लोगों ने मिनटों में दम तोड़ दिया।ये किसी 'केमिकल अटैक' से कम नहीं था।जब तक लोग समझ पाते कि हुआ क्या,ज़्यादातर लोग इसकी चपेट में आ चुके थे।
1984 में हुए उस हादसे से पहले 'यूनियन कार्बाइड 'फैक्ट्री से निकलने वाले केमिकल कचरे को फैक्ट्री में ही बनाए गए 'सोलर इवैपोरेशन पॉन्ड' में फेंक देते थे।तकरीबन 8-10 हज़ार मीट्रिक टन कचरा इन तकनीकी रूप से खतरनाक तालाबों में डाल दिया जाता था।इस अनरेगुलाटेड कचरे के चलते कारखाने के आसपास का तकरीबन 3 से 4 किलोमीटर तक के इलाके का भूजल प्रदूषित हो गया है।इसमें "डायक्लोरोबेंजीन, पॉलीन्यूक्लियर एरोमेटिक हाइड्रोकार्बन्स, मरकरी" जैसे लगभग बीस केमिकल्स हैं।
इस हादसे को अगर हत्या कहा जाए तो गलत नहीं होगा।और इन हत्याओं में फैक्ट्री मालिक से लेकर मौजूदा सरकार तक को दोषी माना जाता है।हादसे के बाद,कंपनी के मालिक 'वारेन एंडरसन' को भारत आते ही गरफ्तार तो कर लिया गया पर जल्द ही ज़मानत भी मिल गई।एंडरसन पर गैर इरादतन हत्या का मुकदमा चला।जिसके बाद एंडरसन को नीली एम्बेसडर में ऐरपॉर्ट तक एस्कॉर्ट किया गया,जहाँ से वो अमेरिका के लिए रवाना हो गया।और 2004 में उसकी मृत्यु की खबर आयी।जो जले पर नमक छिड़कने का काम कर गई।सरकारों और यूनियन कार्बाइड के बीच 715 करोड़ के मुआवजे का समझौता हुआ।करीबन 68 एकड़ में फैला यूनियन कार्बाइड का बन्द कारखाना आज भी खड़ा है,और लोगों को दंश देता रहता है।
2010, में कुल सात दोषियों को 2-2 साल की सज़ा हुई,और ज़मानत भी मिल गई।पर क्या न्याय मिला?क्या ज़ख्मों पर मरहम रखा गया?ये विचार करने वाले प्रश्न हैं।अपराधियों को हमारी लचर कानून व्यवस्था ने सेफ पैसेज दे दिया।मरने के बाद तो किसी को सज़ा नहीं दी जा सकती।
पर इसके उलट, उस एक रात के पीड़ित आज भी दर्द भोग रहे हैं।उनकी आज की पीढ़ियाँ भी उनके ज़ख्मों को महसूस कर रही हैं।आज भी विकृत बच्चे पैदा हो रहे हैं।आज भी 2-3 दिसंबर की रात भपाल के ज़हन में ताजा है।आज भी भोपाल के आसमान में चीखें गूँज रही हैं।लोग आज भी मर रहे हैं।बच्चे आज भी उस एक रात के जख्मों को लेकर पैदा हो रहे हैं।
                -प्रिंसी मिश्रा

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