हार का ठीकरा किसके सर।

बिहार की महागठबंधन की जीत पर बी.जे.पी. जो शून्य की स्थिति में आ गयी ।शून्य अवस्था बहार आकर बी.जे.पी. को हार का कारण मालूम करना चाहिए के ऐसा क्यों हुआ जबकि बीजेपी ने मध्यप्रदेश,उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र,राजस्थान, सहित तमाम प्रदेशो के विधायक से लेकर सांसद तक सभी को बिहार बुला लिया था।  दिल और दिमाग से मेहनत करने की हिदायत दी गयी थी।इतना ही नही वर्तमान में देश के दूसरे नंबर के नेता ने तो यहां तक कहा था कि सफलता पाने के लिए जो भी सम्भव हो मदद की जायेगी। यहां ये भी बताना ज़रूरी है कि भारतीय जनता पार्टी के ब्रांड एम्बेसडर और देश के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के साथ साथ जिन नेताओ ने रैलियां की उसका क्या असर हुआ।

@ नरेंद्र मोदी ने बिहार में   30 रैलियां की। 6600 किमी का सफर किया। 90 सीटें कवर करने की कोशिश की। लेकिन बीजेपी 12 और एनडीए 20 पर जीती।
@ अमित शाह ने भी 85 रैलियां कीं। लेकिन कोई जादू नहीं दिखा सके।
@ रामकृपाल यादव :  केंद्रीय मंत्री यादव ने 12 दिन में 42 रैलियां कीं। एक ही सीट जिता पाए।
@ उपेंद्र कुशवाहा : 3 दिन में 13 रैलियां की, लेकिन एक ही सीट जिता पाए।
@ गिरिराज सिंह : 8 दिन में 35 रैलियां की, लेकिन दो ही सीटों पर एनडीए को जिता पाए।
@ राधामोहन सिंह : 2 दिन में 30 रैलियां की, लेकिन तीन ही सीटें एनडीए को मिलीं।
@ रामविलास पासवान : इन्होंने 11 दिन में 145 रैलियां की, लेकिन सीट मिली सिर्फ एक।
@ राजीव प्रताप रूडी : इन्होंने 8 दिन में 26 रैलियां की, लेकिन दो ही सीटें जिता पाए।
इन क्षेत्रों में स्टार प्रचारको के प्रचार के बाद  एन.डी. ए. की ये हालत हुयी इसको क्या कहा जाये मेहनत में कोई कमी रही या कार्यकर्ताओ की लापरवाही ये पार्टी  की समीक्षा का विषय है। वैसे एन.डी.ए. को हराने में पार्टी के नेताओ  के दुश प्रचार भी शामिल है । जिनमें एक बड़ा नाम शत्रुघन सिन्हा का  है । पार्टी की उपेक्षा का शिकार इन नेताओ के जख्मो पर समय रहते मरहम लगा दिया होता तो विभीषणों से लंका को बचाया जा सकता था। इस चुनाव में मीडिया ने जो  करामात दिखाई है इसको भी हार कारण मान सकते है। मिडिया ने जैसे ही मोदी की चुनावी रैली  को सुनने के लिए आयी  भीड़ ज़्यादा बताना शुरू किया जनता समझ गयी कि सामन्तवादी सोच की मिडिया  ने अपना कम शुरू कर दिया । अचानक क्षेत्रीय चैनलो की टी.आर. पी.में आई गिरावट से मिडिया ने जनता का रुख पहचान लिए और परिणम स्वरूप भागवत के "आरक्षण विरोधी" बयान को लगातार तीन चार दिन तक प्रमुखता से दिखाया।
और विकास की जहग दादरी, दलित और बीफ भारतीय जनता पार्टी का एजेंडा बना डाला मतदाताओ ने इन बयानों के विपरीत  जो वोटिंग की उसका परिणाम सामने है।तीसरा कारण पार्टी ने जिन नेताओ को स्टार प्रचारक के रूप में  बिहार की सरज़मी पर भेजा था उनको पांच सितारा सुविधाये उपलब्ध करायी थी पार्टी के चुनावी पंडितों  ने यह जानने का प्रयास नही किया के जिस विधान सभा में उक्त नेता प्रचार करके आ रहे है। उसमे कितना असर हुआ है। होटल से उतरे और हेलीकॉप्टर पर चढ़े और सभाएं करके वापस आ गए। ये जानते हुए के इस कांग्रेसी कल्चर की वजह से कांग्रेस पार्टी को जनता  सिरे से नाकार चुकी है। फिर भी ऐसा हुआ यदि समय रहते इस इस कांग्रेसी कल्चर पर अंकुश लगा दिया होता तो लम्बी हार से बचा जा सकता था।लेकिन ऐसा नही हुआ क्योंकि  स्टार प्रचारकों को गुजरात से आशीर्वाद प्राप्त था।
अब देखना ये है पार्टी फाईंड प्रोसीजिंग में किस नेता का कद घटेगा और किसका बढ़ेगा। इस पुरे चुनावी परिणामों में बी.जी.पी. तो ठीक ही ठीक है लेकिन बिहार के मौकापरस्त नेताओ को  भी मुह की खानी पड़ी रामविलास पासवान जैसे नेता जिनको 1989 से मंत्री बनने का जो चस्का लगा तब से येन केन हर सरकार में वे  मंत्री रहे वो भूल गए के बिहार का वोटर उनकी मंत्री बनने की लालसा से भली भाँती परचित हो चूका था उनको ये भी याद नही रहा क़े  वे किस समाज से आते है उनका वोट बैंक भी उपेक्षित समाज से है फिर भी बी.जे.पी. से हाँथ मिला कर अपने बेटे भतीजे को चुनाव लड़ाया यही कारण था के दोनों को चुनाव हार गए। मांझी भी इसी समाज से आते है यही कारण है कि मांझी दो सीटो पर चुनाव लड़े थे उनकी एक सीट पर 60% आबादी उपेक्षित समाज से है फिर भी इस सीट पर मांझी को हार का सामना करना पड़ा इस सीट की हार से माझी को अपने हैसियत का और भाजपा को उनके कद का अंदाज़ा हो गया । अब इस चुनाव के बाद बिहार में बी.जे.पी. की हालत बस खस्ता हुयी है लेकिन  बिहार के इन नेताओ की छवि धूमिल के साथ साथ  उनकी दूसरी पुश्त की राजनीती भी समाप्ति की ओर अग्रसर है

पारसमणि अग्रवाल

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